कदम मिला कर चलना होगा
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लाखों प्रकाश पुंज मुस्कुरा जा रहे जब
अन्धकार मिटा चले हँसे गाए यही सब
चन्द्र शोभित रहे नहीं लगते हो ग्रहण तब
स्वयं अरुणिमा होती हो प्रतीक्षा- रत जब
यह चार पक्तियां केवल गा कर सुनाने के लिए नहीं है ,ह्रदय में सारगंभित करने के लिए है। हम २१वी सदी में रहते है , जहाँ हाथ धूमा कर सब कुछ सुलभ हो जाता है। इस सुलभता ने हमारे जीवन मूल्यों को अपरिहार्य बना दिया है , आज ऐसा लगता है हम नैतिकता के चरम पर नहीं पतन पर पहुँच गए है। आज राष्ट्र निर्माण की बातें हो तो रही है, पर कितनी सार्थकता से हो पाया है, देश का नव -निर्माण ?
गरीबी ज्यो की त्यों है ? कुप्रथाएँ, सामाजिक रूढ़िवादी परम्पराएँ, द्वेष और आज भी हम लोग अपने आप को खानों में बाँट कर जी रहे है। अपने आप से चल रहा हमारा जीवन संधर्ष उतना ही प्राचीन है जितने की हम जितना प्राचीन है , हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो संस्कृति .उनमें भी भाषा , ज्ञान , कर्म , और भूमि को लेकर कभी सधर्ष नहीं हुआ यही कारण है ,४,५०० साल पुरानी संस्कृति आज भी एक उन्नत सभ्यता मानी जाती है।
कहते है जब आधा संसार बर्बरता पूर्ण जंगली जीवन जी रहा था तब भारत वर्ष में ज्ञान और विज्ञान का उदय हो गया था।आज अपने देश के हालत कुछ यूँ बयां होते देख रही हूँ--
अभी काफिलों को लुटेरों का डर है
अभी मेरा दर तो खतरों का घर है।
1947 से लेकर आज तक भारत को अपनी एकता ,सांस्कृतिक विरासत पर गर्व था ,होना भी चाहिए, नव -निर्माण के लिए जीवन की प्रेरणात्मक, अमूल्य, धरोहर का बलिदान नहीं किया जा सकता।
पहले का भारत हम कभी एक नहीं थे न होने का हमने प्रयास ही किया , केवल स्वामित्व की भावना से ही एक दूसरे पर प्रहार करते रहे। हिन्दू - यवनों से लड़ते रहे और यवन हिन्दुओं से , इसी कारण हम अंगेज़ी सत्ता के गुलाम हो गये।
रोज़ जब आने वाली पौध आरक्षण पे दंगा देखेगी तब क्या हमारे नौनिहाल पौरुष का पाठ सीखेंगे ? जब खैरात में मिल रह हो तब मेहनत कर कौन खाना चाहेगा ?
चाणक्य ने कहा था - एक दिन अपने स्वार्थो को जीते हुए हम पहले खंडो में , फिर प्रांतो में , और एक दिन ऐसा आएगा जब व्यक्ति केवल स्वयं की अवहेलना कर अपने आप से भी अलग हो निराशा में जीएगा।
पता नहीं कितने स्वार्थो को साधने के लिए हम कब तक यूँ ही अपने आप से लड़ते रहेंगे।
कौन सा दिन ऐसा आएगा जब हम , तमिल , तेलगू , मराठी , पंजाबी न हो कर भारतीय होगे। आज पदक तो देश के नाम से विदेशो मैं मिलते है पर न जाने क्यों देश की मिटटी तक वो किसी खास प्रान्त की पहचान ही बन कर जीते है।
सीधे मुद्दे की बात करूँ तो हम अब भी एक नहीं है। हिंदी को आज हिंदी भाषीय प्रदेश में भी बोला नहीं जाता , हिंदी मतलब अनपढ़ गँवार, अंगेज़ी सुसंस्कृत भाषा हो गई है।
पराधीन हो सुख सपने नाही
हिंदी लोग बोलने में शरमाते है ,संस्कृत कब की लोग भुला चुके ,पुस्तकों में रखा वृहत ज्ञान कब का समय के चूहे चाट कर गए ,१० वर्ष के बाद, हम अपने आप को अपने अंतस को और हीन ही पायेगे क्युकी हमरी क्षेत्रीय भाषा भी मेर चुकी होंगी , और हिंदी लोग भूल गए होंगे , फिर ज्ञान और सभ्यता के लिए हम विदेश का मुख ही ताकेगे।
मेरा मानना है की भारत को पुनः जोड़ने के लिए अंगेज़ी भाषा माध्यम नहीं बन सकती। हिंदी को ही अपना गर्व , अहंकार त्याग कर अपनी जैसी दूसरी भाषाओं के साथ मिल कर आगे बढ़ना होगा।
एक दूसरे को सम्मान दिए बिना हम जुड़ नहीं सकेंगे। बैर के स्थान पर क्षमा और जड़ता के स्थान पर गतिशीलता से काम लेना होगा। उम्मीद है जो रेखाएं हम खीच चुके है उन से बाहर आयेगे।
पहले भारतीय बन कर देखे फिर एक दिन वो सपनो का भारत भी होगा जिस की हमें आस है, पर कदम मिला कर सभी को एक साथ वैसे ही चलना होगा जैसे १०० साल पहले चले थे।
अगर फिर भी ये इतन मुश्किल है तो केवल इतना करने की कोशिश करे------------
रोज़ - रोज़ की मशकत अब कौन करे
आओ एक साथ ही रहे या अब मौन रहे
टूटने , बिखरने से अच्छा है , बात करे
अहंकार की अग्नि बुझा कर ना मौन रहे
परम से पहले अब देश -प्रेम की बात करे
टुकड़ों में बंटकर जीने से बेहतर मौन रहे
हिंदी -उर्दू , तमिल, तेलगु, मराठी, गुज़रती
देख कर न सोच इन से बात भी कौन करे
बैठ नीम की छाँव में हिल -मिल ही बात करे
तेरे मेरे की बात हृदय में ना रख कर मौन रहे।
आराधना राय "अरु "
यह लेख मौलिक और अप्रकाशित है , इस लेख में प्रकाशित विचार लेखक के अपने है।
गरीबी ज्यो की त्यों है ? कुप्रथाएँ, सामाजिक रूढ़िवादी परम्पराएँ, द्वेष और आज भी हम लोग अपने आप को खानों में बाँट कर जी रहे है। अपने आप से चल रहा हमारा जीवन संधर्ष उतना ही प्राचीन है जितने की हम जितना प्राचीन है , हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो संस्कृति .उनमें भी भाषा , ज्ञान , कर्म , और भूमि को लेकर कभी सधर्ष नहीं हुआ यही कारण है ,४,५०० साल पुरानी संस्कृति आज भी एक उन्नत सभ्यता मानी जाती है।
कहते है जब आधा संसार बर्बरता पूर्ण जंगली जीवन जी रहा था तब भारत वर्ष में ज्ञान और विज्ञान का उदय हो गया था।आज अपने देश के हालत कुछ यूँ बयां होते देख रही हूँ--
अभी काफिलों को लुटेरों का डर है
अभी मेरा दर तो खतरों का घर है।
1947 से लेकर आज तक भारत को अपनी एकता ,सांस्कृतिक विरासत पर गर्व था ,होना भी चाहिए, नव -निर्माण के लिए जीवन की प्रेरणात्मक, अमूल्य, धरोहर का बलिदान नहीं किया जा सकता।
पहले का भारत हम कभी एक नहीं थे न होने का हमने प्रयास ही किया , केवल स्वामित्व की भावना से ही एक दूसरे पर प्रहार करते रहे। हिन्दू - यवनों से लड़ते रहे और यवन हिन्दुओं से , इसी कारण हम अंगेज़ी सत्ता के गुलाम हो गये।
इस प्रायद्वीप पे कभी एक जन- जाति के लोग रहे ही नहीं थे ,मोहनजोदाड़ो बसा ही ऐसी जाती प्रजाति से जो घुमन्तु- नोडिक जाती समूह से थे इनमे सम्भवतः अफ्रीका, आस्ट्रेलिया , और इंडो - यूरोपियन समूह के साथ साथ द्रविड़ प्रजाति एक साथ रहते थे , बिना किसी आपसी प्रतिरोध के ,ये चकित करने वाला तथ्य है।
भारत तो वो सतरंगी दीपों की पंक्ति है, जिस में हर दीप अलग आभा लिए है।बात आश्चर्य चकित करने वाली है,की हिंदी में सभी उत्तर पूरब और पश्चिम की क्षेत्रीय भाषाओं का समावेश होने के साथ -साथ संस्कृत जैसी क्लिष्ट भाषा का भी समावेश है ,जिस की शुरुआत भारतेंदु युग से हुई। ऐसा समझा जाता है की घनानंद, देव , बिहारी , विद्यापति , मीरा , कबीर , रहीम , तुलसी , वृंद, नानक , जैसे कवियों और संतो की वाणी ने एक ऐसी भाषा को जन्म दिया जो आगे चल कर हिंदी कहलाई।
आधुनिक हिंदी भाषा का जन्म ही भारतेंदु युग से समझा जाता है, इसी हिंदी का विकास भारतेंदु हरिश्चंद जी ने किया।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।
अपनी भाषा अपना देश और अपनी बातें कहती अपनी भाषा की ज्ञान की पुस्तक। २०० साल अंगेज़ राज कर के चले गए और उस संधर्ष के दौर में हिंदी ही स्वदेशी आंदोलन का माध्यम बनी, इस बीच क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास होता रहा।
देश प्रेम - सोचती हूँ की अगर आज हम गुलाम हो जाये तो क्या हम में इतना साहस होगा की हम देश की बात स्वयं से पहले रख पाये। विवेका नन्द जी ने खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए सामाजिक जागरण का कार्य किया। जब नैतिकता का ही पतन हो जाये तब सामजिक मूल्यों की बात कैसे होगी , स्वाभिमान ही गिरवी हो तो हृदय भी सबल और मज़बूत नहीं होगा। ,अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।
आज का भारत
आज हमारा सामजिक स्तर बढ़ गया है , इतना की घर से देर रात को बाहर जाने पर या निकल कर लगता है कोई गलती हो गई हो। आज माँ मॉम है और पिता पॉप या शायद आल टाइम मनी का दूसरा पर्याय हर कोई बाध्य है, अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।
जब बचपन में ही सिखाया जायेगा की अपना काम किस तरह निकले , कैसे झूठ बोले या आगे बढ़ने के लिए कौन से नए पैतरे अपनाये। ऐसे में हम कौन सा समाज दे रहे है, ये सोचने की बात है की हम क्या दे रहे है?
भारत तो वो सतरंगी दीपों की पंक्ति है, जिस में हर दीप अलग आभा लिए है।बात आश्चर्य चकित करने वाली है,की हिंदी में सभी उत्तर पूरब और पश्चिम की क्षेत्रीय भाषाओं का समावेश होने के साथ -साथ संस्कृत जैसी क्लिष्ट भाषा का भी समावेश है ,जिस की शुरुआत भारतेंदु युग से हुई। ऐसा समझा जाता है की घनानंद, देव , बिहारी , विद्यापति , मीरा , कबीर , रहीम , तुलसी , वृंद, नानक , जैसे कवियों और संतो की वाणी ने एक ऐसी भाषा को जन्म दिया जो आगे चल कर हिंदी कहलाई।
आधुनिक हिंदी भाषा का जन्म ही भारतेंदु युग से समझा जाता है, इसी हिंदी का विकास भारतेंदु हरिश्चंद जी ने किया।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।
अपनी भाषा अपना देश और अपनी बातें कहती अपनी भाषा की ज्ञान की पुस्तक। २०० साल अंगेज़ राज कर के चले गए और उस संधर्ष के दौर में हिंदी ही स्वदेशी आंदोलन का माध्यम बनी, इस बीच क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास होता रहा।
देश प्रेम - सोचती हूँ की अगर आज हम गुलाम हो जाये तो क्या हम में इतना साहस होगा की हम देश की बात स्वयं से पहले रख पाये। विवेका नन्द जी ने खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए सामाजिक जागरण का कार्य किया। जब नैतिकता का ही पतन हो जाये तब सामजिक मूल्यों की बात कैसे होगी , स्वाभिमान ही गिरवी हो तो हृदय भी सबल और मज़बूत नहीं होगा। ,अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।
आज का भारत
आज हमारा सामजिक स्तर बढ़ गया है , इतना की घर से देर रात को बाहर जाने पर या निकल कर लगता है कोई गलती हो गई हो। आज माँ मॉम है और पिता पॉप या शायद आल टाइम मनी का दूसरा पर्याय हर कोई बाध्य है, अपनी आवश्यकताओं से अधिक व्यय करने के लिए।
जब बचपन में ही सिखाया जायेगा की अपना काम किस तरह निकले , कैसे झूठ बोले या आगे बढ़ने के लिए कौन से नए पैतरे अपनाये। ऐसे में हम कौन सा समाज दे रहे है, ये सोचने की बात है की हम क्या दे रहे है?
रोज़ जब आने वाली पौध आरक्षण पे दंगा देखेगी तब क्या हमारे नौनिहाल पौरुष का पाठ सीखेंगे ? जब खैरात में मिल रह हो तब मेहनत कर कौन खाना चाहेगा ?
चाणक्य ने कहा था - एक दिन अपने स्वार्थो को जीते हुए हम पहले खंडो में , फिर प्रांतो में , और एक दिन ऐसा आएगा जब व्यक्ति केवल स्वयं की अवहेलना कर अपने आप से भी अलग हो निराशा में जीएगा।
पता नहीं कितने स्वार्थो को साधने के लिए हम कब तक यूँ ही अपने आप से लड़ते रहेंगे।
कौन सा दिन ऐसा आएगा जब हम , तमिल , तेलगू , मराठी , पंजाबी न हो कर भारतीय होगे। आज पदक तो देश के नाम से विदेशो मैं मिलते है पर न जाने क्यों देश की मिटटी तक वो किसी खास प्रान्त की पहचान ही बन कर जीते है।
सीधे मुद्दे की बात करूँ तो हम अब भी एक नहीं है। हिंदी को आज हिंदी भाषीय प्रदेश में भी बोला नहीं जाता , हिंदी मतलब अनपढ़ गँवार, अंगेज़ी सुसंस्कृत भाषा हो गई है।
पराधीन हो सुख सपने नाही
हिंदी लोग बोलने में शरमाते है ,संस्कृत कब की लोग भुला चुके ,पुस्तकों में रखा वृहत ज्ञान कब का समय के चूहे चाट कर गए ,१० वर्ष के बाद, हम अपने आप को अपने अंतस को और हीन ही पायेगे क्युकी हमरी क्षेत्रीय भाषा भी मेर चुकी होंगी , और हिंदी लोग भूल गए होंगे , फिर ज्ञान और सभ्यता के लिए हम विदेश का मुख ही ताकेगे।
मेरा मानना है की भारत को पुनः जोड़ने के लिए अंगेज़ी भाषा माध्यम नहीं बन सकती। हिंदी को ही अपना गर्व , अहंकार त्याग कर अपनी जैसी दूसरी भाषाओं के साथ मिल कर आगे बढ़ना होगा।
एक दूसरे को सम्मान दिए बिना हम जुड़ नहीं सकेंगे। बैर के स्थान पर क्षमा और जड़ता के स्थान पर गतिशीलता से काम लेना होगा। उम्मीद है जो रेखाएं हम खीच चुके है उन से बाहर आयेगे।
अगर फिर भी ये इतन मुश्किल है तो केवल इतना करने की कोशिश करे------------
रोज़ - रोज़ की मशकत अब कौन करे
आओ एक साथ ही रहे या अब मौन रहे
टूटने , बिखरने से अच्छा है , बात करे
अहंकार की अग्नि बुझा कर ना मौन रहे
परम से पहले अब देश -प्रेम की बात करे
टुकड़ों में बंटकर जीने से बेहतर मौन रहे
हिंदी -उर्दू , तमिल, तेलगु, मराठी, गुज़रती
देख कर न सोच इन से बात भी कौन करे
बैठ नीम की छाँव में हिल -मिल ही बात करे
तेरे मेरे की बात हृदय में ना रख कर मौन रहे।
आराधना राय "अरु "
यह लेख मौलिक और अप्रकाशित है , इस लेख में प्रकाशित विचार लेखक के अपने है।
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