Friday, August 28, 2015

आजकल कम मिलती है ऐसी पत्रिकायें

आजकल कम मिलती है ऐसी पत्रिकायें
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पत्रिका का अंक हाथ में था , मुझ से पहले इसे मेरी माँ ने पढा, वो पढ़ती रही और मैं उन का मुँह देखती रही। माँ की आँखों में से अाँसू निकल रहे थे, वो पंकज त्रिवेदी जी का लेख पढ़ कर रो रही थी , फिर असीमा जी की लिखी कविताये पढ़ कर भी रोई , फिर पन्नें पलटी हुई बोली पूरी पत्रिका ही पढ़ने योग्य है , आज कल ऐसी पत्रिकायें मिलती कहाँ है। माँ की बात सुन सुप्रसिद्ध कथाकार शिवानी जी की बात याद आ गई, यदि पाठक किसी कविता और कहानी को पढ़ कर रोये तो समझ लेना चाहिए, लेखक की लेखनी सफल हो गई। विश्व- गाथा की विषय वस्तु पठनीय नहीं सरहनीय भी है। 

Tuesday, August 4, 2015

ज़िन्दगी कह गई




मुझ से कहती है ये ज़िंदगी धीरे चलों
वक़्त के मोड़ पर तुम भी ज़रा तो रुको

सच कि बातें ,रुसवाइयों कि कहानियाँ
संग हो चुके दिलों कि कहानियाँ लिखों

मौत और ज़िन्दगी कि ज़ंग ज़ारी अभी
हँस कर  परिंदों कि मांनिंद उड़न ये भरो

रो कर बहुत काटी ये बेचैन सी ज़िन्दगी
"अरु"अब कुछ उम्मीदों कि बारिश करो
आराधना राय